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डायना लाफ़ेनबर्ग: कैसे सीखें? गलतियों से।

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    मैं काफ़ी समय से पढा़ रही हूँ,
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    और ऐसा करते हुए,
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    बच्चों और सीखने की प्रक्रिया संबंधी ऐसा अनुभव का भण्डार इकट्ठा कर चुकी हूँ
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    जो कि मैं चाहती हूँ ज्यादा से ज्यादा लोग समझें
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    विद्यार्थियों की काबलियत और शक्यता के बारे में।
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    १९३१ में मेरी दादी --
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    निचली पंक्ति में बाँए तरफ़ --
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    ने आठवीं पास की।
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    वो जानकारी लेने विद्यालय जाती थी
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    क्योंकि जानकारी विद्यालय में ही होती थी।
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    ज्ञान किताबों मे होता था, जानकारी शिक्षक के दिमाग में बसेरा करती थी।
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    और उन्हें उसे ग्रहण करने के लिये वहाँ जाना ही होता था,
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    क्योंकि तब ऐसे ही सीखते थे।
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    सीधे एक पीढी बाद:
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    ये एक कमरे का विद्यालय है, ओक ग्रूव,
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    जहाँ मेरे पिता ने शिक्षा ग्रहण की।
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    और उन्हें भी स्कूल जाना होता था
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    अपने शिक्षक से जानकारी प्राप्त करने के लिये,
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    फिर उन्हें उसे अपने दिमाग में दर्ज करना होता था, जो कि उस समय का एकमात्र उपलब्द्ध पेन-ड्राइव था,
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    और तभी वे उसे अपने साथ ले जा पाते थे,
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    क्योंकि उन दिनों जानकारी को बाँटने का यही ज़रिया था
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    शिक्षक से विद्यार्थी को, और फ़िर दुनिया में इस्तेमाल होने के लिये।
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    जब मैं बच्ची थी,
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    हमारे घर में एक पूरा विश्वकोष था।
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    उसे उसी साल ख़रीदा गया जिस साल मैं पैदा हुई.
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    और वो असाधारण था,
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    क्योंकि मुझे फ़िर जानकारी के लिये पुस्तकालय जाने का इंतज़ार नहीं करना होता था;
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    जानकारी मेरे घर पर ही उपलब्द्ध थी
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    और ये ज़बरदस्त था।
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    ये बिलकुल ही अलग था
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    पिछली दो पीढियों के अनुभव से,
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    और उसने मेरे जानकारी इस्तेमाल करने के तरीकों को बदल डाला
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    भले ही कितने ही छोटे स्तर पर।
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    पर जानकारी मेरे निकट थी।
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    मैं कभी भी उसे प्राप्त कर सकती थी।
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    जो समय गुज़रा
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    मेरे हाई-स्कूल के ज़माने से ले कर
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    मेरे शिक्षक बनने के बीच,
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    उसमें हमने इंटरनेट का आगमन देखा।
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    ठीक जिस समय इंटरनेट
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    एक शिक्षण की विधा के रूप में उभर रहा था,
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    मैं विस्कोन्सिन से निकल कर
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    कान्सास आ गयी - कानसास के उपनगरीय इलाकों में,
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    जहाँ मुझे पढाने का अवसर मिला
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    एक छोटे, प्यारे से उपनगर में
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    ग्रामीण कान्सास के विद्यालय में,
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    जहाँ मैं अपना मनपसंद विषय पढा रही थी,
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    अमरीकी सरकारतंत्र।
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    मेरा पहला साल -- मस्तमौला मज़ेदार - अमरीकी सरकारतंत्र पढा़ने जाना,
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    और मेरा राजनीतिक उपक्रम से बेहद लगाव।
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    बारहवीं के बच्चे:
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    उतना कुछ खास उत्साहित नहीं थे
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    अमरीकी सरकार को समझने में।
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    दूसरा साल: कुछ चीज़ें सीखी -- अपने तरीके बदलने पड़े।
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    और मैनें उनके सामने एक असल अनुभव रखा
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    जो कि उन्हें खुद सीखने का मौका देता था।
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    मैने उन्हें नहीं बताया कि क्या और कैसे करें।
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    मैने बस उनके सामने एक समस्या रखी,
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    जिसमें उन्हें अपने आसपास के समुदाय में एक चुनाव करवाना था।
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    उन्होंने पर्चे छापे, कार्यालयों को फ़ोन किया,
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    समय-सारिणियाँ बनाईं, सचिवों से मुलाकातें कीं,
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    और फ़िर चुनाव की पुस्तिका निकाली
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    पूरे शहर को उनके उम्मीदवारों पर जानकारी देने के लिये।
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    उन्होंने सबको विद्यालय में बुलाया
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    एक शाम भर बातचीत करने के लिये
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    सरकार और राजनीति पर
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    और गलियाँ ठीक से बनीं थीं जैसी बातों पर भी,
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    और इस दौरान इन बच्चों ने सच में सुदृढ अनुभव-आधारित शिक्षा पायी।
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    पुराने शिक्षक -- जो कि ज्यादा अनुभवी थी --
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    मुझे देखते थे और कहते थे,
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    "देखो इसे। कितना प्यारी है। और ये वो ये सबकुछ करवाने की कोशिश कर रही है।"
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    (हँसी)
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    "इसे अंदाज़ा ही नहीं है कि इसके साथ क्या होने वाला है।"
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    मगर मुझे पता था कि बच्चे ज़रूर आयेंगे।
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    और इसमें मेरा दृढ विश्वास था।
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    और मैं उन्हें हर हफ़्ते बताती कि मेरी क्या अपेक्षा है।
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    और उस रात, सारे के सारे ९० बच्चे --
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    ढँग के कपडे पहने, अपना काम कर रहे थे, उसे अपना काम समझ कर।
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    मुझे सिर्फ़ बैठ कर देखना था।
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    वो उनका खुद का काम था। वो अनुभव-आधारित था। वो सोलह आने खरा था।
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    और वो उनके लिए मायने रखता था।
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    और वो आगे बढेंगे।
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    कान्सास से, मैं ख़ूबसूरत एरिज़ोना चली गयी.
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    जहाँ मैंने फ़्लैगस्टाफ़ में कई साल तक पढाया,
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    और इस बार माध्यमिक विद्यालय के विद्यार्थियों को।
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    सौभाग्यवश, मुझे उन्हें अमरीकी सरकार के बारे में नहीं पढाना था।
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    मैं उन्हें भूगोल जैसा अधिक रोमांचक विषय पढा़ रही थी।
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    और फ़िर से, और सीखने को आतुर थी।
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    मगर दिलचस्प बात
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    एरिज़ोना में मिली इस नौकरी में,
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    ये थी कि मुझे एक सचमुच
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    असाधारण समझ वाले बच्चों के साथ काम करने को मिला
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    एक सचमुच के पब्लिक स्कूल में।
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    और हमें कुछ ऐसे क्षण मिले जिन्होंने हमें कुछ गजब के अवसर दिये।
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    और एक अवसर था
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    जाकर पौल रुसेसाबगिना से मिलना,
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    जो कि वही व्यक्ति हैं
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    जिनकी कहानी पर होटल रवांडा नाम की पिक्चर बनी थी।
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    वो हमारे बगल के हाई-स्कूल में बोलने आ रहे थे।
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    हम तो बस पैदल ही वहाँ चले गये; बस का किराया भी नहीं लगा।
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    बिल्कुल मुफ़्त। बिलकुल सटीक अध्ययन-यात्रा।
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    असली समस्या ये थी
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    कि सातवीं और आठवीं के बच्चों से नरसंहार पर कैसे बात करें
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    और कैसे इस विषय से निपटें,
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    जिम्मेदारी और सम्मान के साथ,
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    जिससे कि बच्चों को भी समझ में आये।
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    और इसलिये हमने पौल रुसेसबगिना को
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    ऐसे व्यक्ति के उदाहरण के रूप में लिया
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    जिन्होंने लीक से हटकर भी अपने जीवन का सकारात्मक इस्तेमाल किया।
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    फ़िर मैनें बच्चों से कहा कि
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    अपने जीवन से, या उनकी अपनी कहानी और उनकी अपनी दुनिया से ऐसे लोगों
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    को ढूँढे जिन्होंने पौल जैसा ही कुछ किया हो।
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    मैने उनसे इस विषय पर एक चलचित्र बनाने के लिये कहा।
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    हम पहली बार ऐसा कुछ कर रहे थे।
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    किसी को नहीं पता था कि कमप्यूटर पर चलचित्र कैसे बनाते हैं।
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    मगर बच्चे लगन से काम करने लगे। और मैने उन्हें अपनी खुद की आवाज़ इस्तेमाल करने को कहा।
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    ये ऐसा क्षण था जिसने मेरी आँखें खोल दीं
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    कि जब आप बच्चों से खुद की आवाज़ इस्तेमाल करने को कहते हो
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    और उन्हें अपने मन की बात बोलने को कहते हो,
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    वो बहुत ही गजब की बातें बाँटते हैं।
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    इस प्रयोग का आखिरी सवाल था:
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    कैसे आप अपने जीवन से
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    दूसरों पर सकारात्मक प्रभाव डालेंगे?
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    वो बातें जो बच्चे बोलते हैं
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    यदि आप उनसे पूछें और समय निकाल कर सुनें,
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    असाधारण होती हैं।
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    और फ़िर सीधे पेन्सिलवेनिया, जहाँ मैं आजकल हूँ।
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    मैं विज्ञान नेतृत्व अकादमी (साइंस लीडरशिप अकादमी) में पढाती हूँ,
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    जो कि एक साझेदारी है फ़ैंकलिन संस्थान
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    और फ़िलेडेल्फ़िया विद्यालय डिस्ट्रिक्ट के बीच।
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    हम पब्लिक स्कूल हैं नवीं से बारहवीं तक,
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    मगरह हम थोडा सा अलग हैं।
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    मेरे वहाँ जाने का मुख्य कारण था
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    ऐसे शिक्षण पर्यावरण का हिस्सा बनना
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    जो कि उसी पद्धति को स्थापित करता है, जिससे मेरी समझ से, बच्चे सचमें सीखते हैं
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    जो कि पूरी तरह खोजना चाहे
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    उसे जो कि संभव है
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    तब जब आप तैयार हो
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    पुराने नज़रिये को दरकिनार करके सोचने के लिये,
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    जानकारी के अभाव के जमाने के नज़रिये, तब के जब मेरी दादी स्कूल में थीं,
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    तब के मेरे पिता स्कूल में थे, और तब के भी जब मैं भी स्कूल में थी,
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    और सुलभ-जानकारी के ज़माने के नज़रिये को अपना लें।
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    तो हमें क्या करना चाहिये जब आसपास जानकारी और ज्ञान पटा पडा हो?
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    क्यों आप बच्चों को विद्यालय बुलायेंगे
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    जब कि उन्हें जानकारी के लिये आने की ज़रूरत ही नहीं है?
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    फ़िलेडेल्फ़िया में हम वन-टू-वन लैपटॉप कार्यक्रम चलाते हैं,
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    इसलिये बच्चे अपने साथ हर रोज़ लैपटॉप लाते हैं,
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    घर ले जाते हैं, जानकारी प्राप्त करते हैं।
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    और आप को इस बात के साथ साम्य अनुभव करना होगा कि
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    जब आपने
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    बच्चों को ज्ञान पाने का ज़रिया दे दिया है,
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    तो आपको इस बात से समझौता करना होगा कि
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    बच्चे का असफ़ल होना,
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    सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा है।
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    हम आजकल ऐसे शिक्षण वातावरण से जूझ रहे हैं
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    जो कि ग्रसित है
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    'एक ही सही उत्तर है' की संस्कृति से,
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    जिससे की किसी उत्तर-पुस्तिका के खानों में चिन्ह लगाया जा सके,
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    और मैं आपको ये बताना चाहती हूँ,
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    कि ये सीखने की प्रक्रिया नहीं है।
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    ये गलत से भी गलत है कि
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    हम बच्चों से कभी भी गलती न करने को कहें।
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    उन्हें हमेशा केवल सही उत्तर देने के लिये प्रोत्साहित करने
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    से उन्हें सीखने का मौका नहीं मिलता है।
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    तो हमने एक योजना कार्यान्वित की,
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    और ये इस कार्यक्रम में बनी एक कृति है।
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    मैं शायद ही कभी इसे दिखाती हूँ
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    क्योंकि ये असफ़ल होने से जुडा है।
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    मेरे विद्यार्थियों ने इन जानकारियों के चित्रणों को बनाया
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    एक कार्यशाला के तहत जो हमने साल के अंत में करने का निर्णय लिया था
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    तेल-रिसाव पर प्रतिक्रिया देने के लिये।
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    मैनें उनसे उन उदाहरणों को देखने को कहा जो कि
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    जानकारी का चित्रण कर रहे थे
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    तमाम संपर्क-साधनों में,
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    और ये देखने के लिये कि उनके रोचक भाग कौन से हैं,
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    और फ़िर खुद कुछ बनाने के लिये
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    अमरीकी इतिहास की किसी अलग मानव-निर्मित विपत्ति पर।
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    और उनके पास ये करने के लिये एक ढाँचा भी था।
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    उन्हें ये थोडा कठिन लग रहा था,
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    क्योंकि ऐसा पहले किसी ने नहीं किया था, और उन्हें नहीं पता था कि करना क्या है।
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    वो बहुत अच्छा बोलते है - धाराप्रवाह तरीके से,
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    और वो लिखते भी बहुत अच्छा हैं - सच में बहुत ही अच्छा,
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    पर अपने विचारों को इतने अलग अंदाज़ में बयान करना
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    थोडा कठिन था।
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    पर मैनें उन्हें मौका दिया बस कर डालने का।
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    जाओ, बनाओ। देखो क्या निकलता है।
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    देखते हैं कि हम क्या कर सकते हैं।
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    और जो विद्यार्थी हमेशा
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    सबसे अच्छा चित्र बनाता था, उसने निराश नहीं किया।
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    ये करीब दो या तीन दिन में किया गया काम है।
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    और ये उस विद्यार्थी का काम है जो हमेशा अच्छा चित्रण करता था।
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    और जब मैनें अपने विद्यार्थियों से पूछा, "किसका सबसे अच्छा है?"
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    तो एक्दम सबने कहा, "ये वाला।"
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    किसी ने कुछ पढा नही। सीधे कहा "ये वाला।"
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    और मैने कहा, "ये वाला सबसे अच्छा क्यों है?"
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    तो उन्होंने कहा, "इसका डिजाइन बढिया है, इसमें बढिया रँग हैं।
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    और इसमें ये है, वो है..." और उन्होंने वो सब कहा जो सामने से दिख रहा था।
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    और मैने कहा, "अब जाओ, उसे पढो।"
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    तब उन्होंने कहा, "ह्म्म, ये शायद उतना अच्छा नहीं है।"
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    और फ़िर हम दूसरे वाले पर गये --
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    उसमें चित्रण उतना अच्छा नहीं था, मगर वो बहुत ज्ञानप्रद था --
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    और करीब एक घंटा तक हमने सीखने की प्रक्रिया पर बात की,
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    क्योंकि बात ये नहीं थी कि कौन सा बेहतर है,
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    या मैं क्या बना पाया;
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    इस में उन्होंने स्वयं के लिये रचना की।
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    और इसने उन्हें असफ़ल होने दिया,
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    और उस अनुभव से सीखने दिया।
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    और जब हम इस साल फ़िर से मेरी कक्षा में ये करेंगे
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    विद्यार्थी बेहतर काम कर पायेंगे।
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    शिक्षण-प्रक्रिया में
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    असफ़लता का पुट होना अत्यावश्यक है,
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    क्योंकि असफ़लता से ही सही निर्देश
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    मिल पाते है।
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    यहाँ लाखों तस्वीरें है
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    जिन्हें मैं दिखा सकती हूँ,
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    और मुझे सावधानी से चुनना पडा -- ये मेरी मनपसंद तस्वीर है --
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    सीखते हुए बच्चों की,
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    और सीखना कैसा हो सकता है
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    यदि हम इस दकियानूसी विचार का चोगा उतार फ़ेंके कि
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    बच्चों को सीखने के लिये विद्यालय आने की ज़रूरत है,
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    और इसके बजाय, उनसे ही पूछें कि उन्हें क्या करना है।
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    उनसे रोचक प्रश्न पूछें।
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    वो आपको निराश नहीं करेंगे।
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    उनसे अलग अलग जगहों पर जाने के लिये कहिये,
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    चीज़ों को खुद समझने के लिये कहिये,
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    खुद अनुभव करने के लिये कहिये,
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    खेलने के लिये, जिज्ञासु होने के लिये कहिये।
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    ये भी मेरी सबसे पसंदीदा तस्वीरों में से है,
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    क्योंकि ये उस मंगलवार को ली गयी थी,
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    जब मैने बच्चों से वोट डालने के लिये कहा।
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    ये है रोबी, और ये इसका वोट डालने का पहला मौका है,
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    और ये सबको बताना चाहता था और वोट करना चाहता था।
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    मगर ये भी तो सीखना ही है,
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    क्योंकि हम उन्हें असल जगहों पर जाने के लिये कह रहे हैं।
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    असल मुद्दा
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    ये है कि, यदि हम शिक्षा का मतलब सिर्फ़
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    विद्यालय आना और
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    जानकारी प्राप्त करना समझते रहे,
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    बजाय अनुभवशील शिक्षा के,
  • 9:17 - 9:20
    बजाय विद्यार्थियों को सुनने के, और बजाय असफ़लता को स्वीकार करने के,
  • 9:20 - 9:22
    हम बहुत पीछे छूट जायेंगे।
  • 9:22 - 9:24
    और वो सब जिसके बारे में आज सबलोग बात कर रहे हैं
  • 9:24 - 9:27
    बिल्कुल संभव नहीं होगा यदि हम ऎसी शिक्षा-प्रणाली को पालते रहेंगे
  • 9:27 - 9:30
    जो इन गुणों का मूल्य ही नहीं आँक पाती है,
  • 9:30 - 9:32
    क्योंकि एक धुरी और मानक पर चलने वाले प्रश्नोत्तरीय तरीके से कुछ नहीं होगा,
  • 9:32 - 9:34
    और न ही 'सही उत्तर पर चिन्ह लगाओ' की संस्कृति हमें कुछ देगी।
  • 9:34 - 9:36
    हम जानते है कि इस से बेहतर कैसे हो सकता है,
  • 9:36 - 9:38
    और अब समय आ गया है बेहतर बनने का।
  • 9:38 - 9:43
    (तालियों सहित अभिवादन)
Title:
डायना लाफ़ेनबर्ग: कैसे सीखें? गलतियों से।
Speaker:
Diana Laufenberg
Description:

डायना लाफ़ेनबर्ग हमारे साथ बाँटेंगी तीन ऐसी आश्चर्यजनक बातें जो उन्होंने पढाने के बारे में सीखीं - जिसमें से एक है गलतियों से सीखने से संबंधित।

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Video Language:
English
Team:
closed TED
Project:
TEDTalks
Duration:
09:45
Swapnil Dixit added a translation

Hindi subtitles

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