दया - करुणा (पर्युषण–2001) आज का अपना सत्संग का विषय है दया और करुणा। सामान्य तौर पर सभी को दया और करुणा मतलब दोनों समान ही लगता है उसमें कुछ अलग है ऐसा लगता ही नहीं है। दया और करुणा लेकिन अध्यात्म में इन दोनों में बहुत फर्क है आसमान-ज़मीन का इतना ज़्यादा फर्क है। जितना फर्क ज्ञान और अज्ञान के बीच है उतना ही फर्क दया और करुणा के बीच में है। अज्ञानता में दया होती है और ज्ञान के बाद करुणा होती है। दया को अहंकारी गुण कहा है और करुणा अहंकार जाने के बाद शुरू होती है। अब सामान्य तौर पर सभी लोगों को आश्चर्य होता है कि हमने दया को अहंकार कहा है अज्ञानदशा में दया को सब से ऊँचा सदगुण कहा है क्या? और यह बात भी सही है दया धर्म का मूल है, ऐसा कहा है। लेकिन धर्म का मूल कहा है अध्यात्म का मूल नहीं कहा है। मोक्षमार्ग का मूल नहीं कहा है। आत्मा प्राप्त करने का मूल नहीं कहा है। दया से धर्म की शुरूआत होती है ऐसे करते-करते बहुत समय के बाद जब आत्मा प्राप्त होता है तब उसके बाद करुणा आती है। सिर्फ दया से आत्मा प्राप्त नहीं हो जाता आत्मा की प्राप्ति तो अलग ही बात है। अनेक सदगुणों में से दया भी एक सदगुण है। धर्म में आगे बढ़ने के लिए पात्रता तैयार करने के लिए सारे जो सद्व्यवहार हैं उनमें दया भी एक सद्व्यवहार है। काफी सारी चीज़ें साथ में चाहिए उनमें से दया भी एक बड़ी चीज़ है। लेकिन ज्ञानियों में तीर्थंकरों में दया नहीं होती बल्कि करुणा होती है। नाम मात्र भी दया नहीं होती। क्यों? तब कहे उनके अंदर अहंकार ही नहीं होता है। दया तो अहंकार हो.. अहंकार की बुनियाद पर ही दया टिक सकती है। यदि अहंकार नहीं हो तो दया रख ही नहीं सकते वहाँ तो फिर करुणा ही होती है। दोनों में फर्क कहाँ है कि दया को द्वंद्व गुण कहा है द्वंद्व गुण और करुणा में द्वंद्व नहीं है क्या? द्वंद्व गुण यानी क्या कि जहाँ दया होती है वहाँ निर्दयता होती ही है। एक तरफ दया होती है तो दूसरी ओर निर्दयता होती ही है दोनों साथ ही होते हैं। द्वंद्व यानी दोनों साथ ही होते हैं। जैसे कि सुख और दुःख वह द्वंद्व कहलाता है, अच्छा और बुरा द्वंद्व गुण कहलाता है दोनों साथ में हो वह द्वंद्व गुण कहलाते हैं। ड्यूआलिटी। द्वंद्व मतलब ड्यूआलिटी। इसलिए जहाँ दया होगी वहाँ निर्दयता होगी ही। ऐसा कहा जाता है। किस तरह? उदाहरण के तौर पर दया कहाँ होती है ? तब कहे जहाँ पर अहंकार होता है। सामनेवाले का दुःख देखा नहीं जाता सामनेवाले के दुःख से आप दुःखी हो जाते हो वह दुःख लगता है सामनेवाले के दुःख से आपको दुःख लगता है। यह दुःख लगनेवाले हिस्सा कौनसा है? वह अहंकार है, क्या? इसलिए तीर्थंकरों में अहंकार नहीं होता वे किसी के दुःख से वे दुःखी नहीं हो जाते। दयावान हमेशा सभी की मदद करता है किसलिए करता है तो सामनेवाले का दुःख उससे देखा नहीं जाता सहन नहीं हो पाता इसलिए उसके दुःख से खुद भी इतना असह्य दुःख भुगतता है। उसे वेदना होती है इसलिए खुद का दुःख दूर करने के लिए वह सामनेवाले की हेल्प करेगा ही। करनी ही पड़ेगी वह रह ही नही सकता। इस तरह सूक्ष्म में यह सब कार्य करते हैं मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार की ये सारी प्रक्रियाएँ सूक्ष्म में होती हैं, क्या? जबकि ज्ञानियों में आत्म ज्ञानियों में तीर्थंकरों में दया नहीं होती। दुःख भी नहीं लगता करुणा होती है। कोई चुहा जा रहा हो छोटा चुहा जा रहा हो और बिल्ली उसे पकड़ने दौड़े चुहे को मारनेकेलिए तब सभी दयावान तो वहीं पर ऊँचे-नीचे हो जाएँगे और बिल्ली पर क्रोधित हो जाएँगे। चुहे को बचाने के लिए बिल्ली को मार देते हैं। संड़सी लेकर फेंकते हैं और बिल्ली का पैर तोड़ देते हैं और चुहे को बचाने की अंदर खुशी होती है आनंद और गर्वरस लेते हैं कि मैंने बचा लिया चुहे को बचा लिया और बिल्ली पर तिरस्कार आ जाता है। मतलब इन दोनों में एक पर दया हुई और एक पर निर्दयता हुई यानी द्वंद्व हुआ। मतलब दया होगी तो दूसरी तरफ कहीं न कहीं किसी कोने में निर्दयता होगी ही, होती ही है। सभी दयावानों को ऐसा ही होता है क्या? एक को बचाने जाते हैं तो दूसरे को मार देते हैं समझ में आता है न? यह, दयावान। जबकि ज्ञानियों में दया नहीं होती। दादाजी कहते हैं हमें नाम मात्र की भी दया नहीं होती। किसी के दुःख से हम दुःखी नहीं हो जाते करुणा आती है। करुणा अर्थात् दोनों पर समान (भाव) ही रहता है। चुहे पर भी करुणा . और बिल्ली पर भी करुणा होती है इसलिए तिरस्कार नहीं आता और उसे मारने का भी मन नहीं होता कुछ भी नहीं होता, क्या? अब दोनों के लिए करुणाभाव आता है चुहे पर करुणा कैसे आती होगी? और बिल्ली पर भी कैसे करुणा आएगी? ज्ञानियों के अंदर ऐसा क्या रहता होगा? ज्ञानियों में ऐसा तो अंदर क्या रहता होगा कि दोनों पर समान भाव रह सकता है। तब कहे उन्हें ज्ञान में दिखता है, क्या? दोनों का दिखता है। बिल्ली का भी दिखता है और चुहे का भी दिखता है। वैसे तो बिल्ली नया कर्म चार्ज नहीं करती लेकिन अभी उसके डिस्चार्ज में जो मारने का आया है उस डिस्चार्ज का डिस्चार्ज तो आएगा ही। डिसचार्ज के डिस्चार्ज में भी कुछ हिसाब तो आएगा ही छोड़ेगा नहीं। इसलिए उस पर करुणा आती है कि यह बेचारी क्या कर रही है इसका परिणाम क्या आएगा वह इसे पता नहीं है और दूसरी ओर चुहे पर भी उन्हें करुणा आती है कि इस बेचारे को अभी ऐसा हिसाब भुगतने को आया। लेकिन परिणाम स्वरूप तो वह ऊर्ध्वगामी हो रहा है लेकिन इसका इस तरह मरने का हिसाब आया ऐसा सोचकर उस पर करुणा आती है। मतलब दया या निर्दयता उत्पन्न नहीं होती, क्या? बल्कि दोनों के लिए एक एकसमान रहता है ज्ञानी दखलंदाज़ी नहीं करते और तीर्थंकर भी दखलंदाज़ी नहीं करते इसलिए तो तीर्थंकर करुणा की मूर्ति कहलाते हैं करुणा के सागर कहलाते हैं, क्या? उनमें निरंतर करुणा रहती है क्या? पूरे जगत् के जीवमात्र के प्रति करुणा रहती है। इसके सिवा और कुछ नहीं होता। किसी से कुछ नहीं चाहिए। अहंकार ही नहीं होता। लेना-छोड़ना ऐसा भाव ही नहीं होता। बचाने का, मारने का कोई भाव नहीं होता। मारना है वह भी अहंकार है और बचाना है वह भी अहंकार है। अहंकार तो रहा ही जबकि यहाँ अहंकार ही नहीं होता लेकिन यह बात समझाने से समझ में नहीं आती। सामान्य तौर पर लोगों में बचाने का भाव बहुत होता है और होना भी चाहिए क्योंकि संसार में हैं और अहंकार भी है। मतलब यह पॉज़िटिव अहंकार है। हम इसे गलत नहीं कहते लेकिन जिसे आत्मा प्राप्त करके मोक्ष में जाना है उसे अहंकार रहित होना ही पड़ता है क्योंकि उसने अलग दिशा पकड़ी है। जिनका डेस्टिनेशन अलग है उनके लिए यह बात है, क्या? सामान्य लोगों के लिए नहीं है। सामान्य लोगों को दया आए वह ठीक ही है। ऐसा नहीं होगा तो फिर गलत रास्ते पर चले जाएँगे क्योंकि आत्मा प्राप्त हुआ नहीं है और अंहकार गया नहीं है तो बचाने नहीं जाएँगे तो मारने की सोचेंगे क्योंकि एक द्वंद्व में तो रहेगा ही। समझ में आता है न? यह बहुत सूक्ष्म बात है बहुत सूक्ष्म डिर्माकेशन है, क्या? एकदम सूक्ष्म डिर्माकेशन है दया और करुणा का। आपको तो धंधे में भी ऐसा हो ही जाता है कि अपने और पराए। अपने लोग और पराये लोग। धर्म में भी ऐसा ही हो जाता है। धंधे में भी हो जाता है। हम तो किसी में भी नहीं पड़ते। सभी आत्मरूप ही दिखते हैं अपना ही स्वरूप दिखता है। यह दृष्टि होगी जब आत्म दृष्टि होगी तभी करुणा उत्पन्न हो सकती है। वर्ना ज़रा सी भी पुद्गल (जो पूरण और गलन होता है) दृष्टि उत्पन्न हुई तो करुणा नहीं आएगी। दया या निर्दयता आए बगैर रहेगी ही नहीं। इसका अनुभव करना, क्या? फिर अंदर असर हो जाता है, क्या? वही का वही दिखता रहता है। चित्त में से जाता ही नहीं उसका फोटो ले लेते है। कँपकँपी हो जाती है। सामनेवाले का दुःख देखा नहीं जाता और अंदर भोगवटा (सुख या दुःख का असर भुगतना) आता है। इसलिए सामायिक में इसलिए आज की सामायिक में यह देखना है कि अपना दयावाला भाग कितना है उसे भी देखो प्रकृति का दया भाग है। और उसमें से बाहर निकलकर जहाँ-जहाँ दया आई उसके पीछे जो अहंकार है उसे देखना है। अहंकार में से निकलकर आपको करुणा की ओर जाना है। जय सच्चिदानंद