WEBVTT 00:00:19.133 --> 00:00:21.533 सृष्टि के आरंभ में था लोगोस (नाद/शब्द), 00:00:21.533 --> 00:00:25.267 महाविस्फोट (बिग बैंग), प्रारंभिक ओम् (ओंकार नाद) । 00:00:25.267 --> 00:00:29.267 महाविस्फोटक सिद्धांत के अनुसार भौतिक सर्पिल 00:00:29.267 --> 00:00:31.733 ब्रह्माण्ड एक अकल्पनीय गर्म और सघन एकल 00:00:31.733 --> 00:00:34.933 बिंदु से प्रकट हुआ जो विलक्षण कहलाता है- पिन 00:00:34.933 --> 00:00:39.133 की नोक से करोड़ों गुना सूक्ष्म । 00:00:39.133 --> 00:00:44.001 क्यों और कैसे, यह स्पष्ट नहीं । कोई वस्तु 00:00:44.001 --> 00:00:47.433 जितनी रहस्मयमय हो, हमें लगता है 00:00:47.433 --> 00:00:54.467 हम उसे जान गए हैं। 00:00:54.467 --> 00:01:03.033 ऐसा सोचा गया कि अंततोगत्वा गुरुत्वाकर्षण 00:01:03.033 --> 00:01:08.009 या तो विस्तार को धीमा करेगा 00:01:08.009 --> 00:01:12.005 या ब्रह्माण्ड के लिए विकट स्थिति पैदा करेगा । 00:01:12.005 --> 00:01:16.167 लेकिन हब्बल अंतरिक्ष दूरबीन की छवियों से 00:01:16.167 --> 00:01:20.833 पता चलता है कि ब्रह्माण्ड के विस्तार 00:01:20.833 --> 00:01:26.007 में वास्तव में तेजी आई । ज्यों-ज्यों यह महाविस्फोट से बाहर आया, 00:01:26.007 --> 00:01:33.433 इसमें तेजी से विस्तार होने लगा । पता नहीं कैसे, पर ब्रह्माण्ड में भौतिकी के पूर्वानुमान से कहीं अधिक 00:01:33.433 --> 00:01:37.533 द्रव्यमान है। लापता द्रव्यमान की खोज में भौतिकविद मानते हैं कि ब्रह्माण्ड में केवल 4% परमाणु खनिज है, 00:01:37.533 --> 00:01:47.133 जिसे हम सामान्य खनिज कहते हैं । ब्रह्माण्ड में 23% अविज्ञ पदार्थ है 00:01:47.133 --> 00:01:55.007 और 73% निष्क्रिय ऊर्जा है – जिस पर पहले हमने रिक्त स्थान के रूप में विचार किया था । 00:01:55.007 --> 00:02:00.467 यह अदृश्य तंत्रिका तंत्र की तरह है जो सभी वस्तुओं को संबद्ध करते हुए समग्र 00:02:00.467 --> 00:02:08.133 ब्रह्माण्ड में संचालित होता है । 00:02:08.133 --> 00:02:11.003 प्राचीन वैदिक शिक्षकों ने सिखाया कि नाद 00:02:11.003 --> 00:02:13.967 ब्रहृम है-ब्रह्माण्ड कंपायमान है । 00:02:13.967 --> 00:02:17.533 कंपायमान क्षेत्र समस्त मूल आध्यात्मिक अनुभव 00:02:17.533 --> 00:02:20.008 और वैज्ञानिक अन्वेषण का आधार है । 00:02:20.008 --> 00:02:25.867 यह ऊर्जा का वही क्षेत्र है जिसे संतों, 00:02:25.867 --> 00:02:31.433 बुद्धजनों, योगियों, मनीषियों, पादरियों, शमन और मठवासियों ने अपने 00:02:31.433 --> 00:02:42.006 भीतर खोज कर महसूस किया । इसे संपूर्ण इतिहास में आकाश, प्रारंभिक ओम्, 00:02:42.006 --> 00:02:47.367 इंद्र का रत्नजाल, खगोल का संगीत और 00:02:47.367 --> 00:02:55.233 न जाने कितने हज़ारों अन्य नाम दिए गए । 00:02:55.233 --> 00:03:05.133 यह सभी धर्मों का आधार है । 00:03:05.133 --> 00:03:34.233 और यह हमारे भीतरी और बाहरी दुनिया की संपर्क कड़ी है। 00:03:34.233 --> 00:03:36.008 तीसरी सदी में महायान बौद्ध धर्म में ब्रह्माण्ड-विज्ञान 00:03:36.008 --> 00:03:39.007 की जो व्याख्या की गई है, वह आज की उन्नत 00:03:39.007 --> 00:03:42.006 भौतिकी से भिन्न नहीं है । 00:03:42.006 --> 00:03:45.567 इंद्र का रत्नजाल अति प्राचीन वैदिक शिक्षा 00:03:45.567 --> 00:03:49.733 को परिभाषित करने के लिए प्रयुक्त एक उपमा है जो ब्रह्माण्ड 00:03:49.733 --> 00:03:51.008 की संरचना को स्पष्ट करता है । 00:03:51.008 --> 00:03:55.433 देवताओं के राजा इंद्र ने सूर्य को जन्म दिया और 00:03:55.433 --> 00:04:04.333 वायु एवं जल को गतिशील बनाया । 00:04:04.333 --> 00:04:09.233 मकड़ी के जाल की कल्पना कीजिए जो सभी दिशाओं में फैला होता है । 00:04:09.233 --> 00:04:10.008 जाला, ओस की बूंदों से बना होता है और प्रत्येक 00:04:10.008 --> 00:04:15.233 बूंद में जल की अन्य सभी बूंदों का प्रतिबिंब होता 00:04:15.233 --> 00:04:19.007 है और प्रत्येक प्रतिबिंबित ओस की बूंद में आप 00:04:19.007 --> 00:04:23.033 अन्य सभी ओस की बूदों का प्रतिबिंब देख सकेंगे । 00:04:23.033 --> 00:04:27.000 उस प्रतिबिंब में, इसी प्रकार पूरा जाल अनंत 00:04:27.000 --> 00:04:29.002 सीमा तक फैला होता है । 00:04:29.002 --> 00:04:32.004 इंद्र के जाल को स्वलिखित ब्रह्माण्ड के रूप में वर्णित किया जा 00:04:32.004 --> 00:04:35.000 सकता है जहां प्रकाश की क्षणिक झलक में 00:04:35.000 --> 00:04:42.007 भी पूर्णता का एहसास होता है । 00:04:42.007 --> 00:04:46.033 सर्बियाई अमेरिकी वैज्ञानिक, निकोला टेस्ला 00:04:46.033 --> 00:04:49.003 को कभी-कभी "20वीं सदी की खोज करने वाले व्यक्ति" 00:04:49.003 --> 00:04:50.008 का श्रेय दिया जाता है । 00:04:50.008 --> 00:04:53.004 टेस्ला प्रत्यावर्ती विद्युत धारा की खोज तथा कई 00:04:53.004 --> 00:04:55.008 अन्य सृजनों के लिए विख्यात थे, 00:04:55.008 --> 00:04:59.004 जो आज हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा हैं । 00:04:59.004 --> 00:05:02.005 प्राचीन वैदिक परंपराओं में अपनी रुचि के कारण, 00:05:02.005 --> 00:05:05.633 टेस्ला पूर्वी और पश्चिमी मॉडल, दोनों के माध्यम से विज्ञान 00:05:05.633 --> 00:05:10.233 को समझने की अदि्वतीय स्थिति में था । 00:05:10.233 --> 00:05:13.067 सभी महान वैज्ञानिकों की तरह टेस्ला ने न 00:05:13.067 --> 00:05:15.003 केवल बाहरी संसार के रहस्य को गहराई से देखा, 00:05:15.003 --> 00:05:19.633 बल्कि अपने भीतर की गहराई में भी झाँका। 00:05:19.633 --> 00:05:23.006 प्राचीन योगियों की तरह, टेस्ला ने स्वर्गिक अनुभव 00:05:23.006 --> 00:05:31.833 को वर्णित करने के लिए आकाश शब्द का प्रयोग किया, जो सभी वस्तुओं में प्रसरित है । 00:05:31.833 --> 00:05:36.000 टेस्ला ने योगी स्वामी विवेकानंद के साथ अध्ययन किया, 00:05:36.000 --> 00:05:38.007 जिन्होंने भारत की प्राचीन शिक्षा को पश्चिम तक पहुंचाया । 00:05:38.007 --> 00:05:42.667 वैदिक शिक्षाओं में आकाश स्वयं में शून्य है; 00:05:42.667 --> 00:05:45.002 वह शून्य जिसमें अन्य तत्व भरे हैं, 00:05:45.002 --> 00:05:49.167 जो कंपन सहित उपस्थित रहते हैं । 00:05:49.167 --> 00:05:59.933 दोनों अभिन्न हैं । आकाश यिन है और प्राण यांग । 00:05:59.933 --> 00:06:09.033 एक आधुनिक संकल्पना जिससे आकाश अथवा प्राथमिक 00:06:09.033 --> 00:06:16.000 अस्तित्व की अवधारणा का हमें पता चल सकता है, वह है अंश की अद्भुत कल्पना । 00:06:16.000 --> 00:06:20.233 1980 के दशक के बाद ही कंप्यूटर के क्षेत्र में प्रगति ने प्रकृति के ढांचे 00:06:20.233 --> 00:06:23.433 की गणितीय कल्पना कर उसे वास्तविक 00:06:23.433 --> 00:06:26.467 रूप में पहचानने का हमें अवसर दिया । 00:06:26.467 --> 00:06:29.000 `फ्रैक्टल` अर्थात अंश शब्द का गठन 1980 00:06:29.000 --> 00:06:31.467 में गणितज्ञ बेनॉयट मेंडेलब्रॉट ने किया 00:06:31.467 --> 00:06:34.667 जब उन्होंने कुछ गणितीय समीकरणों का अध्ययन 00:06:34.667 --> 00:06:36.867 करने पर पाया कि एक सीमित 00:06:36.867 --> 00:06:40.233 दायरे में दोहराने पर वे अंतहीन गणितीय 00:06:40.233 --> 00:06:41.933 अथवा ज्योमितीय रूप में बदलती हैं । 00:06:41.933 --> 00:06:48.133 वे सीमित हैं लेकिन साथ ही अनंत भी । 00:06:48.133 --> 00:06:51.633 एक अंश एक स्थूल ज्यामितीय आकार है, 00:06:51.633 --> 00:06:56.033 जिसे अनेक हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है, 00:06:56.033 --> 00:06:58.633 जिनमें से प्रत्येक लगभग संपूर्ण आकार का संक्षिप्त प्रतिरूप है – 00:06:58.633 --> 00:07:05.767 एक गुण जिसे “समरूपता“ कहा जाता है 00:07:05.767 --> 00:07:06.967 मेंडेलब्राट के `अंश` को ईश्वर के अंगूठे 00:07:06.967 --> 00:07:22.867 की छाप कहा गया है । 00:07:22.867 --> 00:07:26.833 आप प्रकृति की स्वयं निर्मित कलाकृति देख रहे हैं । 00:07:26.833 --> 00:07:29.533 यदि आप मेंडेलब्राट की आकृति को एक विशिष्ट तरीक़े से 00:07:29.533 --> 00:07:33.733 घुमाएँ तो यह किसी हिन्दू देवता अथवा बुद्ध के समान दिखाई देगा । 00:07:33.733 --> 00:07:53.267 इसे `बुद्धब्राट आकार` नाम दिया गया है । 00:07:53.267 --> 00:08:01.001 यदि आप किन्हीं प्राचीन कला और स्थापत्य कला के रूप देखें, 00:08:01.001 --> 00:08:03.006 आप पाएंगे कि मानवों ने ज़माने से सौंदर्य और 00:08:03.006 --> 00:08:18.000 पवित्रता को फ़्रैक्टल पैटर्न के साथ जोड़ा है । 00:08:18.000 --> 00:08:21.467 अत्यंत जटिल, फिर भी कण-कण में 00:08:21.467 --> 00:08:24.467 उसकी पूर्णता का बीज है । 00:08:24.467 --> 00:08:26.967 फ्रैक्टल्स यानी अंशों ने सृष्टि और इसकी संचालन प्रक्रिया पर 00:08:26.967 --> 00:08:29.767 गणितज्ञों का दृष्टिकोण बदला है । 00:08:29.767 --> 00:08:32.533 आवर्धन के हर नए स्तर के साथ, 00:08:32.533 --> 00:08:35.933 मूल से भिन्नता उजागर होती हैं । 00:08:35.933 --> 00:08:38.533 जब हम फ्रैक्टल के एक स्तर से दूसरे स्तर पर पारगमन करते 00:08:38.533 --> 00:08:42.633 हैं तो सतत परिवर्धन एवं रूपांतरण घटित होता है । 00:08:42.633 --> 00:08:46.233 यह रूपांतरण ब्रह्माण्डीय सर्पिल गति में होता है । 00:08:46.233 --> 00:09:14.667 दिक्काल के सांचे में सन्निहित बुद्धिमता । 00:09:14.667 --> 00:09:19.033 फ्रैक्टल्स यानी `अंश` सहज रूप से अस्तव्यस्त - शब्द एवं नियम से भरपूर हैं। 00:09:19.033 --> 00:09:22.733 हमारे मस्तिष्क किसी आकार को जब पहचानते या परिभाषित करते हैं, 00:09:22.733 --> 00:09:26.008 तो हमारा ध्यान उस पर यूं केन्द्रित होता है मानो वह कोई वस्तु हो । 00:09:26.008 --> 00:09:29.933 हम आकारों को देखी गई सुंदरता के अनुरूप ढूंढते हैं, 00:09:29.933 --> 00:09:32.008 किन अपने मस्तिष्क में इन आकारों को बनाए 00:09:32.008 --> 00:09:53.267 रखने के क्रम में हमें शेष फ्रैक्टल्स हटा देने चाहिए । 00:09:53.267 --> 00:09:55.009 फ्रैक्टल्स को चेतनाओं में समाविष्ट करना, 00:09:55.009 --> 00:10:01.167 इसका संचालन सीमित करना है । 00:10:01.167 --> 00:10:05.167 ब्रह्माण्ड में समस्त ऊर्जा तटस्थ, 00:10:05.167 --> 00:10:10.167 शाश्वत, आयामहीन है । 00:10:10.167 --> 00:10:13.667 हमारी अपनी रचनात्मकता और आकार की पहचान क्षमता, 00:10:13.667 --> 00:10:17.633 सूक्ष्म जगत एवं ब्रह्माण्ड के बीच की कड़ी है । 00:10:17.633 --> 00:10:24.067 लहरों का शाश्वत जगत और ठोस वस्तुओं का जगत । 00:10:24.067 --> 00:10:29.003 चिंतन की स्वभाविक सीमाओं में 00:10:29.003 --> 00:10:31.567 अवलोकन करना एक सृजनात्मकता है । 00:10:31.567 --> 00:10:34.133 हम वर्गीकरण द्वारा नाम देकर, 00:10:34.133 --> 00:10:37.004 चीजों के ठोसपन का भ्रम पैदा करते हैं । 00:10:37.004 --> 00:10:39.633 दार्शनिक कीर्केगार्ड ने कहा, 00:10:39.633 --> 00:10:43.267 "यदि आप मेरा नाम रखते हैं तो आप मुझे नकारते हैं । 00:10:43.267 --> 00:10:46.433 मेरा नाम रखकर, वर्गीकरण कर, आप उन सभी 00:10:46.433 --> 00:10:49.967 अन्य चीजों को नकार देते हैं जिनकी मुझमें होने की संभावना हो सकती है । 00:10:49.967 --> 00:10:52.667 आप कण को नाम देकर उसकी वस्तु 00:10:52.667 --> 00:10:55.733 के रूप में व्याख्या कर देते हैं, 00:10:55.733 --> 00:10:57.433 आप उसके अस्तित्व को परिभाषित 00:10:57.433 --> 00:11:03.005 कर उसका सृजन कर देते हैं ।" 00:11:03.005 --> 00:11:06.467 सृजनात्मकता हमारी सर्वोच्च प्रकृति है । 00:11:06.467 --> 00:11:10.000 वस्तुओं के सृजन से, ऐसी स्थिति बनती 00:11:10.000 --> 00:11:16.567 है जब चीजों में ठोसपन का भ्रम हो । 00:11:16.567 --> 00:11:22.008 आइन्सटीन पहला वैज्ञानिक था जिसने महसूस 00:11:22.008 --> 00:11:26.005 किया कि जिस अंतरिक्ष को हम शून्य मानते हैं, 00:11:26.005 --> 00:11:28.533 वह ऐसा है नहीं, उसकी विशेषताएं हैं, 00:11:28.533 --> 00:11:30.333 अंतरिक्ष की प्रकृति अथाह 00:11:30.333 --> 00:11:35.167 आंतरिक ऊर्जा से भरपूर है । 00:11:35.167 --> 00:11:38.367 प्रतिष्ठित भौतिक शास्त्री रिचर्ड फैनमेन ने एक बार कहा, 00:11:38.367 --> 00:11:41.000 "अंतरिक्ष के अकेले क्यूबिक मीटर में इतनी ऊर्जा है 00:11:41.000 --> 00:11:48.006 कि विश्व के सभी महासागर उबल सकें ।" 00:11:48.006 --> 00:11:51.167 गंभीर ध्यानी जानते हैं कि अधिकतम 00:11:51.167 --> 00:11:54.003 ऊर्जा मौन में है । 00:11:54.003 --> 00:11:59.267 बुद्ध के पास इस तात्विक सार के लिए एक और शब्द था 00:11:59.267 --> 00:12:03.467 जिसे उन्होंने `कल्प` कहा, जो सूक्ष्म कणों या तरंगिकाओं 00:12:03.467 --> 00:12:07.633 की तरह हैं और प्रति सेकंड खरबों बार उत्पन्न 00:12:07.633 --> 00:12:17.867 व लुप्त होती हैं । इस अर्थ में वास्तविकता, 00:12:17.867 --> 00:12:21.333 स्वलिखित फ़िल्म कैमरे में तेज़ी से गतिशील फ़्रेमों की शृंखला 00:12:21.333 --> 00:12:27.467 द्वारा सातत्य का भ्रम पैदा करने के समान है । 00:12:27.467 --> 00:12:30.233 चेतना के पूर्णतया स्थिर होने पर यह भ्रम समझा 00:12:30.233 --> 00:12:32.133 जा सकता है चूंकि यह चेतना ही है जो 00:12:32.133 --> 00:13:18.067 भ्रम को संचालित करती है । 00:13:18.067 --> 00:13:20.167 पूर्वी प्राचीन परंपराओं में, 00:13:20.167 --> 00:13:22.006 सदियों से यह समझा गया है कि सब 00:13:22.006 --> 00:13:25.567 कुछ कंपायमान है । 00:13:25.567 --> 00:13:30.867 `नाद ब्रह्म`-ब्रह्माण्ड ध्वनि है । 00:13:30.867 --> 00:13:35.367 `नाद` शब्द का अर्थ है ध्वनि या कंपन और 00:13:35.367 --> 00:13:37.867 `ब्रह्म` ईश्वर का नाम है । 00:13:37.867 --> 00:13:43.006 इसके साथ ही ब्रह्मा, ब्रह्माण्ड या ईश है और ईश सृजक है । 00:13:43.006 --> 00:13:48.967 कलाकार और कला अभिन्न हैं । 00:13:48.967 --> 00:13:50.767 उपनिषदों में, 00:13:50.767 --> 00:13:54.000 जोकि प्राचीन भारत के प्राचीनतम मानव जाति के अभिलेख हैं, 00:13:54.000 --> 00:13:58.633 यह कहा गया है "कमल पर बैठे सृजक ब्रह्मा 00:13:58.633 --> 00:14:05.733 के नेत्र खुलने पर जगत अस्तित्व में आता है । 00:14:05.733 --> 00:14:07.333 ब्रहृमा के नेत्र मूंदते ही जगत 00:14:07.333 --> 00:14:14.133 का अस्तित्व मिट जाता है । 00:14:14.133 --> 00:14:16.000 "प्राचीन रहस्यवादियों, योगियों और ॠषियों 00:14:16.000 --> 00:14:17.667 ने माना कि चेतना का 00:14:17.667 --> 00:14:20.007 मूल एक आधार है । 00:14:20.007 --> 00:14:24.433 आक्षिक क्षेत्र अथवा आक्षिक अभिलेख, 00:14:24.433 --> 00:14:28.233 जहां विगत, वर्तमान और भविष्य की सभी जानकारियां, 00:14:28.233 --> 00:14:31.833 सभी अनुभव अस्तित्व में हैं और सदा रहती हैं । 00:14:31.833 --> 00:14:33.008 यह वही क्षेत्र अथवा आव्यूह है जहां 00:14:33.008 --> 00:14:36.333 से सभी वस्तुएं प्रकट होती हैं । 00:14:36.333 --> 00:14:40.133 उप-परमाणु अणुओं से लेकर आकाशगंगा, 00:14:40.133 --> 00:14:51.233 नक्षत्र, सितारे और समस्त जीवन चक्र तक। 00:14:51.233 --> 00:14:53.267 आप इसे समग्रता में कभी 00:14:53.267 --> 00:14:56.167 नहीं देख पाते, क्योंकि यह कंपन परत-दर-परत 00:14:56.167 --> 00:14:59.433 पर बना है और निरंतर 00:14:59.433 --> 00:15:05.033 परिवर्तनशील है, आकाश से जानकारी का आदान-प्रदान कर रही हैं। 00:15:05.033 --> 00:15:16.833 वृक्ष जल ग्रहण कर रहा है सूर्य, वायु, 182 00:15:10,000 --> 00:15:16,833 वर्षा तथा पृथ्वी से । 00:15:16.833 --> 00:15:18.833 वस्तु के भीतर और बाहर ऊर्जा का संसार संचालित 00:15:18.833 --> 00:15:22.003 है जिसे हम वृक्ष कहते हैं । 00:15:22.003 --> 00:15:23.933 जब विचारशील मस्तिष्क शांत हो, 00:15:23.933 --> 00:15:27.433 तो आप यथार्थ को वास्तविक रूप में देखते हैं । 00:15:27.433 --> 00:15:30.367 सभी अवस्थाएं एक साथ । 00:15:30.367 --> 00:15:33.133 वृक्ष एवं आकाश और पृथ्वी तथा वर्षा 00:15:33.133 --> 00:15:36.433 एवं सितारे पृथक नहीं । 00:15:36.433 --> 00:15:41.033 जीवन और मृत्यु हमारी अपनी या किसी अन्य की, पृथक नहीं हैं । 00:15:41.033 --> 00:15:45.967 ठीक वैसे ही जैसे पर्वत और वादियां अभिन्न हैं । 00:15:45.967 --> 00:15:47.067 अमेरिका की आदिवासी तथा अन्य देशज 00:15:47.067 --> 00:15:49.004 परंपराओं में कहा गया है कि प्रत्येक 00:15:49.004 --> 00:15:52.233 वस्तु में जीव है जिसे अन्य तरीक़े से कहा 00:15:52.233 --> 00:15:54.003 जा सकता है कि प्रत्येक वस्तु 00:15:54.003 --> 00:15:58.008 स्पंदनशील स्रोत से संबद्ध है । 00:15:58.008 --> 00:16:02.367 सर्वत्र एक चेतना, एक व्यापकता, 00:16:02.367 --> 00:16:05.367 एक ऊर्जा विद्यमान है । 00:16:05.367 --> 00:16:07.733 यह व्याप्ति आपके आसपास नहीं, 00:16:07.733 --> 00:16:10.233 बल्कि यह आपके माध्यम से घटित हो रही है और आपके 00:16:10.233 --> 00:16:15.267 वास्तविक स्वरूप के अनुसार घटित हो रही है । 00:16:15.267 --> 00:16:18.733 आप ब्रह्मांड का अंश हैं । 00:16:18.733 --> 00:16:24.667 आप नेत्र हैं जिनके माध्यम से सृजक स्वयं को देखता है । 00:16:24.667 --> 00:16:27.067 स्वप्न से बाहर आने पर आप महसूस करते हैं कि 00:16:27.067 --> 00:16:30.003 स्वप्न में सब कुछ आप ही थे । 00:16:30.003 --> 00:16:32.006 आप इसे सृजित कर रहे थे। 00:16:32.006 --> 00:16:34.007 तथाकथित वास्तविक जीवन अलग नहीं है। 00:16:34.007 --> 00:16:38.008 प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक वस्तु आप हैं। 00:16:38.008 --> 00:16:46.067 प्रत्येक नेत्र की चेतन दृष्टि, प्रत्येक चट्टान के नीचे छिपे 00:16:46.067 --> 00:17:06.767 प्रत्येक अणु के भीतर तक देखती है । 00:17:06.767 --> 00:17:09.004 सीईआरएन, कण भौतिक शास्त्र की यूरोपियन 00:17:09.004 --> 00:17:12.133 प्रयोगशाला के अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधानकर्ता 00:17:12.133 --> 00:17:13.433 इस क्षेत्र के लिए अनुसंधान कर रहे हैं, 00:17:13.433 --> 00:17:16.001 जो सभी वस्तुओं में विद्यमान हैं । 00:17:16.001 --> 00:17:17.567 लेकिन इसके भीतर झांकने की बजाय वे 00:17:17.567 --> 00:17:23.733 बाहरी भौतिक संसार देखते हैं । 00:17:23.733 --> 00:17:25.833 जेनेवा, स्विट्जरलैंड के सीईआरएन की प्रयोगशाला 00:17:25.833 --> 00:17:28.001 में अनुसंधानकर्ताओं ने घोषित किया कि उन्होंने 00:17:28.001 --> 00:17:32.000 हिग्स बोसन या ईश्वर कण खोज लिया है । 00:17:32.000 --> 00:17:35.233 हिग्स बोसन के प्रयोगों ने वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित किया कि 00:17:35.233 --> 00:17:41.433 अदृश्य ऊर्जा फील्ड अंतरिक्ष का शून्य भर देती है । 00:17:41.433 --> 00:17:44.333 सीईआरएन का बड़ा हैडरॉन कोलाईडर 00:17:44.333 --> 00:17:47.967 (गोलाकार) 17 मील की परिधि में है जिसमें 00:17:47.967 --> 00:17:50.933 दो किरण पुंज विपरीत दिशाओं में दौड़ते 00:17:50.933 --> 00:17:53.133 हैं और प्रकाश की गति के निकट एक साथ 00:17:53.133 --> 00:17:55.004 टकराकर नष्ट हो जाते हैं । 00:17:55.004 --> 00:17:56.567 वैज्ञानिकों ने देखकर जाना कि प्रचंड 00:17:56.567 --> 00:18:02.233 टकराहट से क्या हासिल होता है । 00:18:02.233 --> 00:18:04.033 मानक मॉडल यह पता नहीं लगा सकता कि 00:18:04.033 --> 00:18:06.933 अणुओं का द्रव्यमान कहाँ से आता है। 00:18:06.933 --> 00:18:09.267 प्रत्येक पदार्थ कंपन से निर्मित दृष्टिगोचर होता है, 00:18:09.267 --> 00:18:16.133 लेकिन कोई चीज कंपित नहीं हो रही होती । 00:18:16.133 --> 00:18:18.633 लगता है मानो कोई अदृश्य नर्तक ब्रह्मांड की 00:18:18.633 --> 00:18:23.233 नृत्य-नाटिका में छिप कर छाया नर्तन कर रहा हो । 00:18:23.233 --> 00:18:26.133 अन्य सभी नर्तक हमेशा इस छिपे 00:18:26.133 --> 00:18:28.833 नर्तक के आसपास नृत्य करते हैं । 00:18:28.833 --> 00:18:30.533 हमने नृत्य की नृत्यकला देखी लेकिन 00:18:30.533 --> 00:18:41.167 अब तक उस नर्तक को नहीं देख सके । 00:18:41.167 --> 00:18:44.001 तथाकथित "ईश्वर कण", 00:18:44.001 --> 00:18:47.067 ब्रह्माण्ड का आधार तत्व का गुण, 00:18:47.067 --> 00:18:49.167 सभी पदार्थों का अंत:स्तल है, जो उस रहस्यमय द्रव्यमान 00:18:49.167 --> 00:18:56.067 एवं ऊर्जा के साथ ब्रह्माण्ड के विस्तार को संचालित करता है । 00:18:56.067 --> 00:18:59.033 लेकिन ब्रह्माण्ड की प्रकृति की व्याख्या करना तो दूर की बात, 00:18:59.033 --> 00:19:01.833 हिग्स बोसन की खोज ने बड़े-बड़े रहस्य साधारण 00:19:01.833 --> 00:19:05.001 रूप में प्रस्तुत किए, जिसने वह ब्रह्माण्ड उद्घाटित 00:19:05.001 --> 00:19:10.933 किया जो हमारी कल्पना से कहीं अधिक रहस्यपूर्ण है । 00:19:10.933 --> 00:19:13.733 विज्ञान चेतना और पदार्थ के बीच की सीमा-रेखा के 00:19:13.733 --> 00:19:15.433 सन्निकट है । 00:19:15.433 --> 00:19:18.533 वह दृष्टि जिससे हम प्रारंभिक सिद्धांत का क्षेत्र देखते हैं और 00:19:18.533 --> 00:19:21.004 वह दृष्टि जिससे क्षेत्र हमें देखता है, 00:19:21.004 --> 00:19:35.000 एक ही है । 00:19:35.000 --> 00:19:38.367 जर्मन लेखक और विद्वान वुल्फगेंग वॉन गोयथे ने कहा है, 00:19:38.367 --> 00:19:40.967 "तरंग आदिकालीन तथ्य है 00:19:40.967 --> 00:19:45.004 जिससे विश्व उत्पन्न हुआ" । 00:19:45.004 --> 00:19:53.633 सिमेटिक दृश्य ध्वनि का अध्ययन है । 00:19:53.633 --> 00:19:57.008 सिमेटिक शब्द ग्रीक के मूल शब्द `साईमा` 00:19:57.008 --> 00:20:08.733 से बना, जिसका अर्थ है - तरंग या कंपन । 00:20:08.733 --> 00:20:11.001 तरंगीय तथ्य का गंभीरता से अध्ययन करने वालों 00:20:11.001 --> 00:20:13.005 में प्रथम पश्चिमी वैज्ञानिक अर्नस्ट श्लाड्नी, 00:20:13.005 --> 00:20:15.733 अठारहवीं शताब्दी का एक जर्मन 00:20:15.733 --> 00:20:18.000 संगीतज्ञ एवं भौतिक विज्ञानी था । 00:20:18.000 --> 00:20:20.004 श्लाड्नी ने खोज की कि धातु की प्लेटों पर रेत फैला कर वायलन 00:20:20.004 --> 00:20:23.767 गज से जब प्लेटों को डुलाया गया, 00:20:23.767 --> 00:20:29.167 तो रेत स्वत: प्रतिकृतियों में व्यवस्थित हो गई । 00:20:29.167 --> 00:20:30.667 उत्पादित कंपन के आधार पर भिन्न-भिन्न 00:20:30.667 --> 00:20:38.333 ज्यामितिक स्वरूप दृष्टिगोचर हुए । 00:20:38.333 --> 00:20:40.033 श्लाड्नी ने इन रूपों की समूची तालिका रिकार्ड 00:20:40.033 --> 00:20:42.933 की, जिन्हें श्लाड्नी आकृतियों के रूप में उल्लिखित 00:20:42.933 --> 00:20:45.367 किया जाता है । 00:20:45.367 --> 00:20:47.133 इनमें कई प्रतिकृतियों को समग्र प्राकृतिक विश्व में 00:20:47.133 --> 00:20:54.167 देखा जा सकता है । जैसे कछुए या तेंदुए की 00:20:54.167 --> 00:21:03.967 चित्तियों की प्रतिकृतियों के निशान । 00:21:03.967 --> 00:21:06.933 श्लाड्नी की प्रतिकृतियों या साइमेटिक प्रतिकृतियों का अध्ययन 00:21:06.933 --> 00:21:09.967 एक गोपनीय विधि है जिसके माध्यम से उन्नत गिटार, वॉयलिन 00:21:09.967 --> 00:21:21.833 और अन्य वाद्ययंत्रों के निर्माता वाद्ययंत्रों की ध्वनि गुणवत्ता का निर्धारण करते हैं । 00:21:21.833 --> 00:21:27.567 हैंस जेनी ने वर्ष 1960 में श्लाड्नी का कार्य आगे बढ़ाया और ध्वनि 00:21:27.567 --> 00:21:30.767 नैरंतर्य को विकसित करने के लिए विभिन्न द्रव्य एवं इलेक्ट्रॉनिक प्रवर्धकों का 00:21:30.767 --> 00:21:37.333 प्रयोग किया एवं `सिमेटिक्स` (तरंग) ध्वनि का सृजन किया । 00:21:37.333 --> 00:21:40.533 यदि आप जल में सामान्य तरंगों की ओर दौड़ते 00:21:40.533 --> 00:21:43.633 हैं तो आप जल में प्रतिकृतियां देख सकते हैं । 00:21:43.633 --> 00:21:45.733 तरंग की आवृत्ति के आधार पर विभिन्न 00:21:45.733 --> 00:21:47.008 तरंगित प्रतिकृतियाँ दृष्टिगोचर होंगी । 00:21:47.008 --> 00:21:52.001 आवृत्ति के बढ़ने पर प्रतिकृति जटिल होती जाएगी । 00:21:52.001 --> 00:21:55.008 इन स्वरूपों की पुनरावृति होगी, लेकिन ये बेतरतीब नहीं होंगी । 00:21:55.008 --> 00:21:57.467 जितना अधिक आप इन पर ध्यान केंद्रित करेंगे, 00:21:57.467 --> 00:22:01.867 उतना ही आपको इस बात का एहसास होगा कि किस प्रकार तरंग पदार्थ को साधारण दुहराव 00:22:01.867 --> 00:22:04.007 वाले तरंगों से जटिल रूपों में व्यवस्थित करने लगती हैं । 00:22:04.007 --> 00:22:29.867 इस जलतरंग की प्रतिकृति सूर्यमुखी फूल के समान है । 00:22:29.867 --> 00:22:32.133 मात्र ध्वनि नैरंतर्य के परिवर्तन से हम 00:22:32.133 --> 00:22:52.004 विभिन्न प्रतिकृतियां पा जाते हैं । 00:22:52.004 --> 00:22:55.367 जल अत्यंत रहस्यात्मक द्रव्य है । 00:22:55.367 --> 00:22:57.008 यह अत्यंत संवेदनशील है । 00:22:57.008 --> 00:23:00.833 अर्थात्, यह कंपन प्राप्त कर सकता है और उसे रोक कर रख सकता है । 00:23:00.833 --> 00:23:03.067 अपनी अत्याधिक गुंजायमान क्षमता तथा 00:23:03.067 --> 00:23:07.233 संवेदनशीलता एवं गूंजने के लिए आंतरिक तत्परता के कारण 00:23:07.233 --> 00:23:09.533 जल सभी प्रकार की ध्वनि तरंगों 00:23:09.533 --> 00:23:12.567 के प्रति तत्काल प्रतिक्रिया देता है । 00:23:12.567 --> 00:23:13.006 प्रदोलित जल तथा पृथ्वी से 00:23:13.006 --> 00:23:17.433 अधिकांश पौधों तथा पशुओं के समूह का निर्माण होता है । 00:23:17.433 --> 00:23:21.933 यह देखना सरल है कि जल में किस प्रकार साधारण 00:23:21.933 --> 00:23:25.000 प्रदोलन, पहचानने योग्य प्राकृतिक प्रतिकृतियों को सृजित कर सकता है, 00:23:25.000 --> 00:23:30.067 लेकिन जैसे ही हम उसमें ठोस पदार्थ मिलाते हैं और उसके आयाम 00:23:30.067 --> 00:23:35.133 को बढ़ा देते हैं तो वस्तुएं और भी दिलचस्प हो जाती हैं । 00:23:35.133 --> 00:23:36.933 पानी में कार्नस्टार्च (मक्की की मांड) मिलाने से हमें 00:23:36.933 --> 00:23:58.433 और मिश्रित तत्व हासिल होते हैं । 00:23:58.433 --> 00:24:00.009 कदाचित जीवन के सिद्धांतों को भी महसूस किया 00:24:00.009 --> 00:24:03.009 जा सकता है, चूंकि कंपनों से कार्नस्टार्च चलते- 00:24:03.009 --> 00:24:12.733 फिरते जीव में परिवर्तित हो जाती है । 00:24:12.733 --> 00:24:15.233 ब्रह्माण्ड का जीवंत सिद्धांत उन शब्दों का प्रयोग 00:24:15.233 --> 00:24:18.001 करते हुए प्रत्येक बड़े धर्म में वर्णित किया 00:24:18.001 --> 00:24:20.267 गया है जो इतिहास में तत्कालीन 00:24:20.267 --> 00:24:26.033 समझ को प्रतिबिंबित करता है । 00:24:26.033 --> 00:24:31.333 इकांस की भाषा में, कोलंबियन-पूर्व 00:24:31.333 --> 00:24:34.933 अमेरिका में `मानव शरीर` के लिए `अल्पा कमास्का` शब्द है, 00:24:34.933 --> 00:24:41.001 जिसका शाब्दिक अर्थ है `जीवंत पृथ्वी` । 00:24:41.001 --> 00:24:43.005 कबाला या यहूदी रहस्यवाद में ईश्वर के 00:24:43.005 --> 00:24:46.067 दिव्य नाम का उल्लेख है । 00:24:46.067 --> 00:24:49.003 वह नाम जिसे उच्चारित नहीं किया जा सकता । 00:24:49.003 --> 00:24:51.003 इसे इसलिए नहीं बोला जा सकता, 00:24:51.003 --> 00:24:56.007 चूंकि यह ऐसा कंपन है जो सर्वत्र है । यह सभी शब्दों, सभी पदार्थों में हैं । 00:24:56.007 --> 00:25:00.233 पवित्र शब्द ही सब कुछ है । 00:25:00.233 --> 00:25:02.001 चतुष्फलक सर्वाधिक सामान्य आकार है, 00:25:02.001 --> 00:25:05.333 जो तीन आयामों में अस्तित्व में है । 00:25:05.333 --> 00:25:06.767 कुछ में भौतिक वास्तविकता के लिए कम 00:25:06.767 --> 00:25:09.267 से कम चार बिंदु होने चाहिए । 00:25:09.267 --> 00:25:11.333 त्रिकोणीय संरचना प्रकृति की केवल 00:25:11.333 --> 00:25:13.933 स्वनिर्धारित प्रतिकृति है । 00:25:13.933 --> 00:25:17.033 पूर्व-विधान में शब्द `चतुर्वर्णी` 00:25:17.033 --> 00:25:20.267 ईश्वर के कुछेक प्रकटीकरण के लिए प्राय: प्रयुक्त किया जाता है । 00:25:20.267 --> 00:25:23.733 इसे तब प्रयोग किया गया था, जब ईश्वर के शब्द या ईश्वर, 00:25:23.733 --> 00:25:30.867 लोगो या प्रारंभिक शब्द के विशेष नाम से बात की गई थी । 00:25:30.867 --> 00:25:36.233 प्राचीन सभ्यता जानती है कि ब्रह्माण्ड की 00:25:36.233 --> 00:25:40.467 आधारभूत संरचना चतुष्फलक आकार की थी । 00:25:40.467 --> 00:25:43.009 इस आकार में प्रकृति साम्य, शिव के लिए 00:25:43.009 --> 00:25:47.533 आधारभूत प्रमाण प्रदर्शित करती है । 00:25:47.533 --> 00:25:50.002 हालांकि इसमें परिवर्तन के लिए आधारभूत प्रमाण, 00:25:50.002 --> 00:25:56.867 शक्ति भी है । 00:25:56.867 --> 00:25:59.333 बाइबल में जॉन सिद्धांत में सामान्यतया 00:25:59.333 --> 00:26:01.667 `आरंभ में शब्द था़` 00:26:01.667 --> 00:26:04.667 पठित है लेकिन मूल पाठ में प्रयुक्त शब्द 00:26:04.667 --> 00:26:07.733 `लोगो` था । 00:26:07.733 --> 00:26:09.009 ईसा पूर्व लगभग 500वें वर्ष में विद्यमान 00:26:09.009 --> 00:26:13.002 ग्रीक दार्शनिक हरक्लीटस ने 00:26:13.002 --> 00:26:14.005 `लोगो` का उल्लेख कुछ आधारभूत 00:26:14.005 --> 00:26:16.733 अज्ञात के रूप में किया । 00:26:16.733 --> 00:26:22.003 सभी पुनरावृति, पद्धति और स्वरूपों का उद्भव । 00:26:22.003 --> 00:26:24.233 हरक्लीटस के उपदेशों का अनुसरण करने वाले 00:26:24.233 --> 00:26:27.004 निर्लिप्त दार्शनिकों ने ब्रह्माण्ड में व्याप्त दिव्य जीवंत 00:26:27.004 --> 00:26:36.004 सिद्धांत के साथ इस शब्द का पता लगाया । 00:26:36.004 --> 00:26:42.002 सूफीवाद में `लोगो` सर्वत्र है और सभी वस्तुओं में है । 00:26:42.002 --> 00:26:52.833 यह वह तत्व है जिसमें अव्यक्त, व्यक्त हो जाता है । 00:26:52.833 --> 00:26:57.267 हिन्दू परंपरा में शिव नटराज का शाब्दिक अर्थ है 00:26:57.267 --> 00:26:59.933 `नृत्य सम्राट`। 00:26:59.933 --> 00:27:03.433 संपूर्ण ब्रह्माण्ड शिव की धुन पर नृत्य करता है । 00:27:03.433 --> 00:27:08.000 सभी कुछ स्पंदन से ही ओतप्रोत होता है । 00:27:08.000 --> 00:27:10.002 केवल जब तक शिव नृत्य कर रहे हैं तभी तक 00:27:10.002 --> 00:27:13.005 संसार विकसित और परिवर्तित हो सकता है, 00:27:13.005 --> 00:27:19.233 अन्यथा सब कुछ समाप्त होकर शून्य हो जाएगा । 00:27:19.233 --> 00:27:21.033 यद्यपि शिव हमारी चेतना का साक्ष्य है, 00:27:21.033 --> 00:27:26.009 शक्ति संसार का सार है । 00:27:26.009 --> 00:27:29.007 यद्यपि शिव ध्यानमग्न हैं, 00:27:29.007 --> 00:27:31.967 शक्ति उन्हें संचालित करने का प्रयत्न करती है, 00:27:31.967 --> 00:27:34.006 जिससे उन्हें नृत्य में उतारा जा सके । 00:27:34.006 --> 00:27:36.001 यिन एवं यांग की तरह नर्तक 00:27:36.001 --> 00:27:42.867 तथा नृत्य का अस्तित्व एक है । 00:27:42.867 --> 00:27:47.167 `लोगो़` का अर्थ है अनावृत सत्य । 00:27:47.167 --> 00:27:51.567 जो `लोगो़` को जानता है, वही सत्य को जानता है । 00:27:51.567 --> 00:27:53.367 छिपाव की कई परतें आकाश के रूप में मानवीय 00:27:53.367 --> 00:27:56.367 संसार में अस्तित्व में हैं, जिससे स्वयं 00:27:56.367 --> 00:27:59.033 के स्रोत को छिपाते हुए 00:27:59.033 --> 00:28:01.533 वह जटिल संरचनाओं के भंवर में फंस जाता है । 00:28:01.533 --> 00:28:04.467 लुकाछिपी के दिव्य खेल की तरह हम हजारों 00:28:04.467 --> 00:28:07.567 वर्षों से छिपते चले आ रहे हैं और खेल 00:28:07.567 --> 00:28:10.008 eको पूरी तरह से भूल गए हैं । 00:28:10.008 --> 00:28:17.633 हम भूल गए हैं कि कोई ऐसी चीज है जिसकी खोज की जानी है । 00:28:17.633 --> 00:28:21.009 बौद्धधर्म में प्रत्येक को अपने `लोगो़` को सीधे महसूस करना, 00:28:21.009 --> 00:28:25.933 अर्थात् ध्यान के माध्यम से अपने भीतर परिवर्तन या नश्वरता के क्षेत्र का पता 00:28:25.933 --> 00:28:28.167 लगाना सिखाया जाता है। 00:28:28.167 --> 00:28:30.333 जब आप अपना आंतरिक संसार देखते 00:28:30.333 --> 00:28:34.167 हैं तो आप सूक्ष्म संवेदनाओं और ऊर्जा को देखते हैं और 00:28:34.167 --> 00:28:38.633 मस्तिष्क अधिकाधिक कुशाग्र व आत्मकेन्द्रित होने लगता है । 00:28:38.633 --> 00:28:41.267 `अणिका` के प्रत्यक्ष अनुभव या संवेदन के 00:28:41.267 --> 00:28:44.008 आधारभूत स्तर पर नश्वरता के माध्यम से व्यक्ति 00:28:44.008 --> 00:28:50.967 मोह से मुक्त हो जाता है । 00:28:50.967 --> 00:28:53.433 एक बार हम अनुभव कर लेते 00:28:53.433 --> 00:28:55.867 हैं कि एक ही क्षेत्र है जो सभी धर्मों का सामान्य रास्ता है, 00:28:55.867 --> 00:29:05.008 तो हम किस प्रकार कह सकते हैं `मेरा धर्म` या `यह मेरा मौलिक ओम् 00:29:05.008 --> 00:29:20.833 है`, `मेरा क्वाण्टम क्षेत्र है` ? 00:29:20.833 --> 00:29:28.007 हमारे संसार में वास्तविक संकट सामाजिक, 00:29:28.007 --> 00:29:32.333 राजनीतिक या आर्थिक नहीं हैं । 00:29:32.333 --> 00:29:38.003 हमारे संकट चेतना के संकट हैं, अपने वास्तविक स्वरूप को प्रत्यक्ष अनुभव कर 00:29:38.003 --> 00:29:41.008 पाने की असमर्थता । 00:29:41.008 --> 00:29:44.867 प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक व्यक्ति में इस प्रकृति 00:29:44.867 --> 00:29:53.006 को पहचानने की असमर्थता । 00:29:53.006 --> 00:29:56.333 बौद्ध परंपरा में, `बोधिसत्व` 00:29:56.333 --> 00:29:59.003 जागृत बुद्ध प्रकृति का व्यक्ति है । 00:29:59.003 --> 00:30:03.002 ब्रह्माण्ड में बोधिसत्व हर प्राणी को जागृत करने में 00:30:03.002 --> 00:30:09.003 सहायता करता है, यह अनुभव करते हुए कि चेतना केवल एक ही है। 00:30:09.003 --> 00:30:16.633 किसी के वास्तविक स्वरूप को जागृत करने के लिए व्यक्ति को सभी को जागृत करना चाहिए । 00:30:16.633 --> 00:30:24.005 “विश्व में असंख्य सचेतन प्राणी हैं, मैं उनकी 00:30:24.005 --> 00:30:28.567 जागृति में सहायता करना चाहता हूं । 00:30:28.567 --> 00:30:31.867 मेरी अपूर्णताएं असंख्य हैं । 00:30:31.867 --> 00:30:34.467 मैं उन पर विजय पाना चाहता हूँ। 00:30:34.467 --> 00:30:37.967 धर्म अज्ञात है। 00:30:37.967 --> 00:30:41.001 मैं इसे जानना चाहता हूं । 00:30:41.001 --> 00:30:46.733 जागृति का मार्ग अप्राप्य है । 00:30:46.733 --> 99:59:59.999 मैं इसे पाना चाहता हूं ।“ �